चिंतन एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से या समुदाय से जोड़ने की माध्यमी भावना है। इससे तो भगवान भी अछूते नहीं रहे है। तो भगवान के मनुज अवतार राम और उनकी भार्या सीता कैसे रहते?? शांतिप्रिय राम जब सीता हरण के समय उनकी चिंता में व्याकुल हुए तो उसकी परिणति कल्याण के मार्ग को खोजने में हुई। रावण के विनाश में हुई। जो सर्व के लिए चिंतन वहां श्री राम ने दिखाया, उसके कारण उनकी प्रतिष्ठा श्री को प्राप्त होने लगी।
किन्तु...........................……………………………
इससे पूर्व का एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम जानना जरूरी है जो अशोक वाटिका की सीता में आपको दिखेगा ।
पहली झलक🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌸🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️
अशोक वाटिका की सीता
सीता केवल एक नाम नहीं एक मर्म है।
प्रकृति से जुड़े करुन्य मानव हृदय का स्पर्श है।
ये कथा दर्शाती है सीता के जीवन के सबसे कठिन संघर्ष को। सीता के कर्म को और सीता के सच्चे अर्थ को।
अशोक वाटिका की सीता का पावन अध्यायअब हुआ प्रारंभ........
क्या समझ पाएगा जगत उसके सच्चे त्यागो का अर्थ......
पढ़िए अशोक वाटिका की सीता।
अध्याय 1
परिचय अशोक वाटिका की सीता का
छोड़ो दुष्ट पापी रावण!! इस स्थान का कण कण मेरे परिचय को जानता है। और यहां उपस्थित प्रकृति का प्रत्येक अंश तुम्हारी इस धूर्तता पर क्रोधित है। अगर तुमने मुझे इसी क्षण मुक्त ना किया तो स्वयं मेरे श्री राम आकर
तुम्हे दंडित करेंगे। ये मेरी चेतावनी ही नहीं मेरा विश्वास है:- जानकी सीता ने रावण से स्वयं को छुड़ाने का प्रयास करते हुए कहा।
रावण भयावह हंसी में बोला:- हां हां हां....! सीता तुम्हे पाने के लिए जो उपक्रम मैंने किए है उसी से मैंने तुम्हे प्राप्त किया है। और स्त्री को पाने का अधिकार सिर्फ उसी को है जिसमें बल है। आज मैंने तुम्हे अपने पराक्रम से प्राप्त किया है। वास्तव में शूर्पणखा ने जितना विवरण दिया उससे ज्यादा सुंदर हो तुम सीता। मेरे साथ चलो।
सीता मुख पर क्रोध का भाव लेे बोली:- वास्तविकता से आप कोसो दूर है रावण। वास्तविकता यह है कि एक विवाहित स्त्री को आप तब अगवा करते है जब उसका पति उसके साथ नहीं है। आपके इस कर्म में पराक्रम कहां है?? और स्त्री को केवल वही पा सकता है जिसे स्त्री ने स्वयं चुना हो। और मैंने आपको नहीं चुना है?? इसलिए आपका मुझ पर कोई अधिकार नहीं। अभी भी समय है अपनी दुष्टता के लिए श्री राम से क्षमा मांग लीजिए। मै उन्हें अच्छी तरह जानती हूं पाप स्वीकारने पर वो तुम्हे क्षमा कर देंगे।।
रावण क्रुद्ध हो बोला:- क्षमा। हां क्षमा तो वो राम मांगेगा।
पर उसकी छोटी सी क्षमा मेरी दिव्य लंका की सीमा तक भी पहुंच ना पाएगी। यही उसका दंड होगा सीता।
मेरी बहन के अपमान का दण्ड उसे अपनी पत्नी को खोकर देना होगा।
सीता की नियति में कैसा ये अध्याय
श्री राम से अलग होकर सीता दुख क्यों पाए......
अध्याय 2
साधु अंधकार के रूपक रावण को जानकी का उत्तर
सीता:- जब मनुष्य अपनी कर्मस्थली का तिरस्कार करता है तो उससे बड़ा अपमानित इस संसार में कोई नहीं हो सकता। एक ब्राहमण होकर जिस तुच्छता का परिचय आपने दिया है रावण, उसका साक्षात्कार कर तो मै स्वयं अचंभित हूं। छल का प्रयोग करने वाले आपके हाथो में क्या अस्त्र भी सुशोभित होते होंगे, इसका भी मुझे संशय है!!!
रावण:- तुम्हारे सभी संशय को दूर करने के लिए ही तो मैंने तुम्हारा अपहरण किया है रूप सुंदरी। ताकि मै तुम्हे दिखा सकू कि उस रामराज्य में तुमने जो प्रतिष्ठा पाई वो धूलधूसरित थी और मेरे राज्य में तुम जो प्रतिष्ठा पाओगी वो तो तुम्हे देवताओं के स्वर्ग में भी नहीं मिलेगी।
सीता:- मेरे लिए स्वर्ग वहीं है जहां मेरे श्री राम। चाहे मै श्री राम के साथ पाताल में भी चली जाऊं तब भी वो मेरे लिए स्वर्ग ही होगा। किन्तु तुम्हारे साथ जाना मुझे स्वीकार नहीं।
मेरी अनुमति तुम्हारे साथ जाने की कभी नहीं होगी रावण।
रावण:- स्त्री की अनुमति की आवश्यकता भला पुरुषों को कब से होने लगी सुंदरी। मेरे बंधन में आना तुम्हे मानना ही होगा क्योंकि मै तुम्हारा स्वामी हूं। मैंने तुम्हारा हरण किया है।
सीता:- आपने अवश्य ही मेरा हरण किया है पर वरण नहीं। और स्वामी??? इस शब्द की परिभाषा भी जानते हो क्या लंकापति। स्वामी वो होता है जिसे व्याक्ति स्वयं को अर्पित करता है। जैसे भक्त ईश्वर को। पर कभी भी ईश्वर भक्त को विवश नहीं करता है। स्व का अर्पण जहां स्वतंत्रता से हो वहीं स्वामित्व होता है। पर आपके प्रसंग में तो ये बात वैसे ही असत्य है जैसे आपकी वाणी।
रावण:- सीता!!!! तुम्हारे इस घमंड को मै आज तोड़ूंगा जब तुम्हे इस पर्ण कुटी से दूर में बंदी बनाकर लंका लेे जाऊंगा।
सीता:- आप मुझे बंधन में क्या बांधेंगे रावण। मै तो श्री राम के बंधन में बंधी पड़ी हूं। जिसे कोई दूरी तोड़ नहीं सकती।
रावण:- बंधन समीप रहने पर होता है सीता। दूरी केवल वियोग लाती है। जिसे वो राम झेलेगा।
सीता:- किन्तु श्री राम और मेरा बंधन हर बंधन से पृथक है। ये मन का बंधन है। जिसकी दृढ़ता वज्र से भी कठोर है।
रावण सीता का हाथ जबरन पकड़ते हुए:- इन्द्र का वज्र भी मुझे प्रणाम करता है सीता। अब चलो मेरे साथ।
सीता:- नहीं रावण। मै तुम्हारे साथ नहीं जाऊंगी। छोड़ो मेरा हाथ।
रावण:- अब ये हाथ लंका पहुंचने पर ही छूटेगा सुंदरी सीता।
इतना कह हर ले गए रावण सीता को मुस्काए
सीता राम राम कहती रही राम भी थे अकुलाए
पुष्पक में उड़ते उड़ते सुनी ना किसी ने पुकार
सीता ने गिरा दिए आभूषण खोजते कोई मार्ग
मार्ग मिला रक्षण को उनके वीर जटायु आए
पर क्या कहे लंकेश था कपटी छल से उन्हें मार गिराए
रोती सीता राम को ढूंढे राम की रट ही लगाए
राम भी पथ पथ घूम के सीते सीते बोले जाए।
क्या है सीता के भाग्य???